राजा राव तुलाराम कौन हैं ? राव तुलाराम का इतिहास

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राजा राव तुलाराम कौन हैं ? Rav Tularam Kaun Hai?

राव तुलाराम का जन्म 9 दिसम्बर 1825 ई० को गाँव रामपुरा, रेवाड़ी में राव पूर्ण सिंह के घर हुआ। इनकी माता का नाम ज्ञान कौर था। इनकी दो बड़ी बहनें कौर तथा रतन कौर थीं। 1989 में जब इनकी आयु 14 वर्ष की थी तो तब इनके पिता का देहान्त हो गया। एक वीरांगना की भाँति रानी ज्ञान कौर ने राव तुलाराम को भारत का वीर सपूत बनाया। 


राव तुलाराम का जन्म कहाँ हुआ?

हरियाणा के दक्षिणी छोर पर राजस्थान की सीमा के पास रेवाड़ी नगर स्थित है। इनका जन्म रेवाड़ी में हुआ था । 


राव तुलाराम का इतिहास -


ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध स्वतन्त्रता का बिगुल बजाने वाले शूरवीरों में हरियाणा के राजा राव तुलाराम का नाम भी प्रसिद्ध है। वे आजादी के मसीहा और भारत के गौरव के रूप में जाने जाते हैं। साहस और दृढ़ता की प्रतिमूर्ति इस फौलादी युग-पुरुष का व्यक्तित्व निराला था। 

अंग्रेज भारतीय जनता पर घोर अत्याचार कर रहे थे और भारतीय जनता अन्दर-ही-अन्दर इसका बदला लेने की तैयारी कर रही थी। 10 मई, 1857 को भारतीय सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों के विरुद्ध मेरठ में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया। स्वतन्त्रता प्राप्त करने को के लिए भारतीय जनता ने करवट बदली।



 समस्त राष्ट्र ने फिरंगियों को देश से बाहर निकालने की ठान ली। ऐसे में राजा राव तुलाराम केसे शान्त बैठ सकते थे। उन्होंने भी उचित अवसर देखकर स्वतन्त्रता के लिए शंखनाद किया। राजा तुलाराम की ललकार सुनकर समस्त रणबांकुरे स्वतन्त्रता के झण्डे के नीचे एकत्रित हो गए।


राजा राव तुलाराम



1805 ई० में सिन्धिया की हार के बाद रेवाड़ी राज्य का विलय ब्रिटिश साम्राज्य में कर दिया गया था और राव तुलाराम के दादा राव तेजसिंह को 87 गाँव की जागीर देकर खुश करने की कोशिश की गई थी। राजा से जमींदार बनाया जाना राव तुलाराम को अखरता था और वह इस अवसर की तलाश में थे। यह अवसर उन्हें 1857 ई० में मिल गया जब सैनिक विद्रोह फूट पड़ा और क्रान्ति की लपटें समस्त भारत में फैल गईं।


 राव तुलाराम के जन्म के समय भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज था। 14 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता की गद्दी सम्भाल ली। उन्होंने आस-पास के राजाओं और नवाबों से अपना मेल-जोल बढ़ाया। 1856 ई० में उन्होंने रामपुरा में एक किले का निर्माण करवाया। 10 मई, 1857 को अंग्रेजों की सेना के शक्तिशाली गढ़ मेरठ में खुले आम विद्रोह हो गया। 

राव तुलाराम के चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल उस समय मेरठ में कोतवाल के पद पर थे। उन्होंने समस्त केदखानों के दरवाजे खोल दिए और जेल में बन्द तमाम केदियों को स्वतन्त्र कर दिया गया। नवयुवकों को स्वतन्त्रता के लिए एक झण्डे के नीचे एकत्रित किया। तमाम अंग्रेज अधिकारियों का सफाया कर दिया। 


अपने साथियों और सेना को साथ लेकर दिल्ली की ओर कूच किया। बहादुर शाह जफर के पास आकर उन्हें कहा, "जहांपनाह उठो, अपनी तलवार सम्भालो और हमें अपना आशीर्वाद दो जिससे हम फिरंगीयों को भारत से बाहर निकाल सकें।" सम्राट ने डबडबायी आँखों से कहा, "मेरे वीर सिपाहियो, आज मेरे पास कुछ भी नहीं है जो मैं तुम्हें दे सकूँ। 


 कृष्ण गोपाल अपने साथियों के साथ बोले, “महाराज न तो हमें धन और सामान की आवश्यकता है। हम स्वतन्त्रता के मार्ग पर चलने के लिए आपका आशीर्वाद चाहते हैं। हम धन-दौलत को अपनी तलवार से जीतकर आपके चरणों में डाल देंगे।" इस वीर की इस गर्जना को सुनकर सम्राट की आँखों में आँसू आ गए। 

क्रान्तिकारियों ने दिल्ली पर अपना अधिकार कर लिया और बहादुर शाह जफर को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। 13 मई, 1857 को क्रान्तिकारियों ने गुड़गाँव पर अपना अधिकार कर लिया। 16 मई, 1857 को बहादुर शाह जफर ने एक शाही फरमान जारी करके रेवाड़ी और मेवात क्षेत्र की प्रशासनिक व्यवस्था राव तुलाराम को सौंप दी।


 13 अगस्त को राव तुलाराम ने बढहेड़ा पर आक्रमण करके नवाब फरुखनगर से इसे छीन लिया। राव तुलाराम ने समय-समय पर सम्राट बहादुर शाह जफर की दिल खोलकर मदद की। उन्होंने 4500 रुपए जनरल बख्त खाँ के हाथ सम्राट बहादुर शाह जफर को भेजे। उस समय सम्राट के लिए सेना को तनख्वाह देना भी मुश्किल हो रहा था ।


 राव तुलाराम जब अपनी सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे तो मार्ग में सोहना और तावडू के बीच अंग्रेज सेना से उनकी मुठभेड़ हो गई। फिरंगियों को राजा राव तुलाराम की गतिविधियों का पहले ही पता चल गया था। अंग्रेज सेना ने फोर्ड के नेतृत्व में राव तुलाराम की सेना पर आक्रमण कर दिया। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। स्वतन्त्रता के मतवाले खूब जोश से लड़े और उन्होंने मैदान जीत लिया। 


फोर्ड की सारी सेना नष्ट हो गई और फोर्ड भाग निकला। राव कृष्ण गोपाल को जब यह समाचार मिला कि रेवाड़ी के राजा तुलाराम स्वतन्त्रता के लिए काफी प्रयत्न कर रहे हैं तो वे अपनी साथियों समेत दिल्ली से रेवाड़ी पहुँचे। राव तुलाराम ने एक सभा बुलाई। इस सभा में महाराजा अलवर, राजा वल्लभगढ़, राजा निमराना, नवाब झज्जर, नवाब फर्रुखनगर, नवाब पटौदी और नवाब फिरोजपुर झिरका शामिल हुए।


 राजा तुलाराम ने अपने विशेष मित्र महाराजा जोधपुर को भी निमन्त्रण भेजा जिस पर उन्होंने उत्तर भेजा कि अंग्रेजों से लोहा लेना कोई आसान कार्य नहीं है। नवाब फर्रूखनगर, नवाब झज्जर और नवाब फिरोजपुर झिरका साकारात्मक उत्तर दिया। इस पर राव तुलाराम ने सभा में घोषणा की कि चाहे हमें कोई सहायता दे या न दे वे भारत माता को स्वतंत्र करवाने के लिए अपना बलिदान ज़रूर देंगे।


 इनकी गर्जना से प्रभावित होकर राजा, नवाब और नवयुवक स्वाधीनता संग्राम में शामिल हो गए। इनमें नवाब झज्जर के दामाद समद खान ने पठान भी थे। राव तुलाराम ने अंग्रेजों के विरुद्ध एक बड़ी सेना तैयार की और अपने चचेरे भाई कृष्ण गोपाल को सेनापति नियुक्त किया। अंग्रेजों को पता चला कि राव तुलाराम लड़ाई के लिए पुरजोर कोशिश कर रहा है और आस-पास के राजाओं व नवाबों को भी हमारे विरुद्ध भड़का रहा है तो मिस्टर फोर्ड के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पता व 6 अक्तूबर को राव तुलाराम के दमन के लिए आई। 


जब राव तुलाराम चला कि इस बार फोर्ड बड़े दल-बल के साथ बढ़ा आ रहा है तो उन्होंने अनुमान लगाया लिया कि आधुनिक हथियारों से लैस अंग्रेजी फौजों को छोटी-सी सेना की सहायता से नहीं हराया जा सकता। उन्होंने रेवाड़ी में युद्ध न करने की सोचकर महेन्द्रगढ़ के किले में मोर्चा लेने के लिए प्रस्थान किया।


 अंग्रेजों ने भी महेन्द्रगढ़ की तरफ कूच किया। इस बार राव तुलाराम नारनौल के समीप एक पहाड़ी स्थान नसीबपुर में डट गए। यहाँ पर दोनों फौजों के दौरान भीषण युद्ध हुआ। कम साधन होने पर भी सेना ने युद्ध में अत्यन्त रणकौशल दिखाया । रक्तधारा बह निकली। शत्रु सेना त्राहि-त्राहि करने लगी। तीन दिन तक युद्ध चलता रहा।

 तीसरे दिन राव तुलाराम घोड़े पर शत्रु सेना के हाथी के पास पहुँचे और तलवार के एक ही भरपूर वार से अंग्रेज अफसर काना साहब को यमलोक पहुँचा दिया। काना साहब के धराशायी होने से अंग्रेज सेना में भगदड़ मच गई और वह युद्ध क्षेत्र से भाग निकली। मिस्टर फोर्ड भी मैदान छोड़कर भाग निकला और दादरी के पास मोहड़ी गाँव में एक जाट के घर शरण ली। परन्तु उसी दौरान पटियाला, जींद और जयपुर देशद्रोही सेना अंग्रेजों की सहायता के लिए आ पहुँची और पुनः घमासान युद्ध शुरू हो गया । अपार सेना के समक्ष छोटी-सी सेना कब तक टिक सकती थी। नसीबपुर मैदान में महाप्रतापी योद्धा राव तुलाराम के चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल और इनके छोटे भाई राव राम लाल, राव किशन सिंह, सरदार मणि सिंह, मुफती निजामुद्दीन, शादीराम, रामधन सिंह और खान पठान आदि भारत की स्वतन्त्रता की वेदी पर बलिदान हो गए। 


नसीबपुर के मैदान में राव तुलाराम हार गए और रेवाड़ी की तरफ चले गए। अक्तूबर 1857 के अन्त तक अंग्रेजों के पाँव दिल्ली और उत्तरी भारत में जम गए । राव तुलाराम अपने प्रयत्न को सफल न होते देख 1862 ई० में बीकानेर, जैसलमेर होते हुए कालपाई चले गए। उन दिनों कालपाई स्वतन्त्रता संग्राम हुआ था। कालपाई के राजाओं से विचार-विमर्श करके सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से राव तुलाराम ईरान पहुँचे। 


ईरान के शाह ने उनकी मदद करने का वायदा राव तुलाराम राजदूत किया। वे यहाँ से काबुल पहुॅचे और वहाँ से भी सहायता प्राप्त की। उन्होंने रूसी से भी सम्पर्क स्थापित किया। सेना तैयार करके अगस्त 1868 में भारत वापस आने की योजना बनाई।  


राजा राव तुलाराम की मृत्यु


 राव तुलाराम कुछ समय ईरान व राजस्थान रहकर अफ़गानिस्तान चले गए। दुर्भाग्य ने इनका पीछा न छोड़ा और 23 सितंबर, 1863 को  वह बीमार हो गए। इनका काफी इलाज चलता रहा। अन्त में 23 सितम्बर, 1863 को 38 वर्ष की आयु में वे इस संसार से कूच कर गए। काबुल में इनके निधन पर राजकीय शोक मनाया गया। दो माह बाद इनकी अस्थियों को रेवाड़ी लाया गया और गंगा में प्रवाहित किया गया । 


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1857 की क्रांति में रेवाड़ी हरियाणा का योगदान


हरियाणा के दक्षिणी छोर पर राजस्थान की सीमा के पास रेवाड़ी नगर स्थित है। पानीपत के दूसरे युद्ध में अकबर ने रेवाड़ी पर अधिकार कर लिया था और रेवाड़ी को दिल्ली सूबे की जागीर बना दिया गया। अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में बोलनी गाँव के राव नंदराम को रेवाड़ी का हाकिम नियुक्त कर दिया गया।

 रेवाड़ी एक रियासत का रूप धारण कर गई। राव नंदराम की मृत्यु के पश्चात् उसका बेटा राव बालकिशन रेवाड़ी का उत्तराधिकारी बना जो बड़ा वीर और साहसी था। सन् 1739 में दिल्ली के सम्राट मुहम्मद शाह का नादिरशाह की सेना के साथ करनाल में युद्ध हुआ जिसमें बालकिशन की मृत्यु हो गई और बालकिशन का भाई राव गूजरमल रेवाड़ी का हाकिम नियुक्त कर दिया गया।


 गूजरमल की नवाब फरूखनगर और घासेड़ा के शासक बहादुर सिंह के साथ शत्रुता थी । घासेड़ा के शासक बहादुर सिंह ने नीमराणा के ठाकुर टोडरमल से मिलकर धोखे से गूजरमल का वध करा दिया। 1 मृत्यु के पश्चात् इसका पुत्र राव भवानी सिंह रेवाड़ी का शासक बना।


 राव गूजरमल की राव भवानी सिंह एक अयोग्य शासक था। इसके नौकर तुलसीदास ने इसको विष मार डाला। इसकी मृत्यु के पश्चात् भरतपुर के जाट राजा सूरजमल ने रेवाड़ी पर अपना अधिकार जमा लिया और दिल्ली के सम्राट की तरफ से रेवाड़ी परगना को राजा नागरमल खत्री को प्रदान कर दिया गया। सन् 1776 में पंजाब के जस्सा सिंह, रा सिंह व श्याम सिंह ने रेवाड़ी को बेरहमी से लूटा।


 सन् 1803 में जब मराठों और अंग्रेजों में युद्ध हुआ तो इसमें मराठों की पराजय हुई और दिल्ली पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया। अंग्रेज़ अधिकारी लॉर्ड लेक ने रेवाड़ी का क्षेत्र भरतपुर के राजा रणजीत सिंह को सौंप दिया। परंतु कुछ समय पश्चात् अंग्रेज़ भरतपुर के राजा से नाराज़ हो गए और रेवाड़ी की जागीर राव गूजरमल की विधवा ने अपने एक दूर के रिश्तेदार राव तेजा सिंह को प्रदान कर दी।

 सन् 1823 में राव तेजा सिंह की मृत्यु हो गई और अंग्रेजों ने राव तेजा सिंह की जागीर इसके तीनों पुत्रों पूर्ण सिंह, नाथुराम और जवाहर सिंह में बाँट दी। सन् 1887 में पूर्ण सिंह की मृत्यु हो गई और इसका 12 वर्षीय पुत्र राव तुलाराम इसका उत्तराधिकारी बना। सन् 1857 में विद्रोह आरंभ हो गया।


 राव तुलाराम ने 17 मई, 1857 को अपने कुछ साथियों की सहायता से रेवाड़ी तहसील के कार्यालय पर आक्रमण करके अपना अधिकार कर लिया। इसने दिल्ली के सम्राट बहादुरशाह जफर की सहायता की। कुछ दिनों बाद यह भोडा परगने पर अधिकार करने के लिए 13 अगस्त, 1857 को राव तुलाराम और नवाब फरूखनगर की सेना में युद्ध हुआ जिसमें राव तुलाराम के चचेरे भाई गोपाल देव ने कंधे से कंधा मिलाकर राव तुलाराम का साथ दिया।


 कुछ समय पश्चात् दिल्ली पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया और अक्तूबर, 1857 के आस-पास क्षत्रिय शासकों से निबटना आरंभ कर दिया। अंग्रेज़ों ने झज्जर के नवाब को बंदी बना लिया और नवंबर, 1857 में राव तुलाराम का नसीबपुर के स्थान पर अंग्रेज़ों के साथ भयंकर युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेज़ विजयी हुए और रेवाड़ी जागीर पर उनका अधिकार हो गया। राव तुलाराम कुछ समय ईरान व राजस्थान रहकर अफ़गानिस्तान चले गए। 23 सितंबर, 1863 को बीमारी के कारण इनका वहीं देहांत हो गया।


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