असहयोग आन्दोलन के कारण, परिस्थितियाँ, परिणाम और महत्व

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Asahyog Andolan


 दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी ने सत्याग्रह के अपने विशिष्ट दर्शन को मूर्तरूप देने में सफलता प्राप्त की तथा उसके प्रति दृढ़ आस्था और विश्वास के साथ वे स्वदेश वापस आए थे। किसी भी प्रकार के दमन अत्याचार और अन्याय के बीच प्रतिरोध का वह उनका अहिंसात्मक उपाय था। 


यहां यह बात उल्लेखनीय है कि सत्य और अहिंसा गांधीजी के जीवन दर्शन के आधारभूत तत्त्व थे। वे दोनों ने अटूट और अविच्छिन्न सम् मानते थे एवं यही कारण था कि उन्होंने इन्हीं को अपने सभी संघर्षों अर्थात् आन्दोलनों का आधार है सत्य से उनका मतलब उस बात को स्वीकार करना था जिसे अपनी आत्मा सही कहे।


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 उनका तात्पर्य अहिंसा से अति व्यापक था। हत्या, मारपीट, तोड़फोड़ तथा दूसरे हिसात्मक कार्यों को बनाया। किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट देना की ही वह केवल हिंसा नहीं मानते थे। उनके अनुसार मन, वचन और कर्म देना हिंसा है। अहिंसा की अपनी अवधारणा के अनुसार विरोधी के मन वह हिंसा मानते थे। सत्य पर आधारित उनका अहिंसात्मक संघर्ष ही 'सत्याग्रह' है ।


असहयोग आंदोलन कब हुआ? asahyog andolan kab hua


 शान्तिपूर्ण हड़ताल, प्रदर्शन असहयोग, सविनय अवज्ञा और हिजरत इसके साधन हैं। हम देखते हैं कि 1920 के प्रारम्भ में असहयोग आन्दोलन उनके सत्याग्रह का एक मूर्तरूप था । वह सत्य पर उनका अहिंसात्मक आन्दोलन था। अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध यह एक निष्क्रिय प्रतिरोध था। इसके कार्यक्रमों के विश्लेषण से हम  इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि यह पदों, उपाधियों, सरकारी एवं अर्ध-सरकारी विद्यालयों और महाविद्यालय अदालतों, चुनावों, सरकारी एवं अर्ध सरकारी उत्सवों, सेना तथा विदेशी माल के बहिष्कार के माध्यम से सरकार से असहयोग का शांतिपूर्ण और अहिंसात्मक उपाय था। इस आन्दोलन का यह नकारात्मक पहलू था। इसी के साथ दूसरा इसका एक सकारात्मक पहलू भी था ।


  •  1. विवादों के हल के लिए पंचायतों का उपयोग (Use of Panchayats for Settlement of Disputes)
  •  2. राष्ट्रीय स्कूल-कॉलेजों की स्थापना (Establishment of National Schools and Colleges 
  • 3. स्वदेशी का व्यापक स्तर पर प्रचार (Publicity of Swadeshi on Broad Stage)
  •  4. हथकरघा उद्योग का जीर्णोद्धार (Renovation of Handloom Industry )
  •  5. अस्पृश्यता का अन्त (Abolition of Untouchability) 
  • 6. हिन्दू-मुस्लिम एकता (Hindu Muslim Unity ) 


ब्रिटिश साम्राज्य से असहयोग का ही यह सकारात्मक पक्ष भी एक और प्रभावशाली उपाय वा इस तरह हम देखते हैं कि गांधीजी ने शान्तिपूर्ण बहिष्कार एवं स्वदेशी के माध्यम से सरकार के विरुद्ध असहयो • आन्दोलन का सूत्रपात किया। यह शासन और सरकारी मशीनरी को शान्तिपूर्ण एवं अहिंसात्मक उपाय से करने का आन्दोलन था। यह अनुशासन एवं आत्मत्याग का आन्दोलन था। यह राष्ट्रीय एकता एवं स्वावलम्ब का आन्दोलन था।


 कार्यक्रम (Programme)- 


सितम्बर, 1920 ई. में कलकत्ता के विशेष अधिवेशन में गांधीजी द्वारा सहयोगसम्बन्धी प्रस्तुत जो प्रस्ताव स्वीकृत किए गए और जिनकी नागपुर अधिवेशन (दिसम्बर, 1920 ई) की पुष्टि की गई, उन्हीं के आधार पर असहयोग आन्दोलन के नकारात्मक एवं सकारात्मक कार्यक्रम निर्धारित किए गए -


 नकारात्मक कार्यक्रम (Negative Programme ) - 

  • 1 सरकारी एवं अर्धसरकारी स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार।
  •  2. सरकारी वैतनिक और अवैतनिक पदों का त्याग। 
  • 3. सरकारी उपाधियों का त्याग
  •  4. 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत होने वाले चुनावों का बहिष्कार।
  •  5. सरकारी एवं अर्ध सरकारी समारोहों और उत्सवों का बहिष्कार । 
  • 6. विदेशी माल का बहिष्कार ।
  •  7. मद्यनिषेध तथा अस्पृश्यता निवारण 
  • 8. मेसोपोटामिया से सैनिक, क्लर्क और मजदूर के रूप में कार्य करने से इनकार करना।
  •  9. सरकारी दरबारों का बहिष्कार । 
  • 10. अदालतों का बहिष्कार । 


रचनात्मक कार्यक्रम (Constructive Programme ) - 

  1. पारस्परिक विवादों का पंचायतों द्वारा निबटारा
  2. राष्ट्रीय स्कूल-कॉलेजों की स्थापना
  3. व्यापक पैमाने पर स्वदेशी का प्रचार
  4. हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करना 
  5. हथकरघा तथा हाथ से कताई बुनाई उद्योग का जीर्णोद्धार 


असहयोग आन्दोलन के कारण और परिस्थितियाँ (asahyog andolan ka mukhya karan kya tha) -


मुख्यतः रौलट एक्ट, जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, पंजाब में सरकारी दमन एवं अत्याचार तथा तुर्की के प्रश्न पर गांधीजी ने भारतीय मुसलमानों के साथ विश्वासघात से क्षुब्ध एवं असन्तुष्ट होकर असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात किया। जिन कारणों अथवा परिस्थितियों ने उन्हें सहयोगी से असहयोगी बनाया, और कुछ अन्य परिस्थितियों अथवा कारणों ने जनता को क्षुब्ध एवं असन्तुष्ट कर उनके नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया। 

यह बात यहाँ उल्लेखनीय है कि कोई भी आन्दोलन अथवा अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता है जब तक उसे जनता का सक्रिय और प्रभावशाली सहयोग, समर्थन एवं सहभागिता न प्राप्त हो। असहयोग आंदोलन से लेकर अपने सभी संघर्षों में गांधीजी को भी जनता के सक्रिय एवं प्रभावशाली सहयोग और सहभागिता से ही सफलता मिली। 


जनता को भी गांधीजी के साथ-साथ निम्नलिखित परिस्थितियों अथवा कारणों ने असहयोग आन्दोलन के लिए प्रेरित किया- 


1. शासन का भारतीयों के साथ विश्वासघात (Fraudulent Attitude of Government for Indians)-


प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18 ई.) में भारतीय जनता तथा भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश शासन की स्वेच्छा एवं उत्साहपूर्वक पूरा सहयोग किया था। यह सत्य है कि उस समय भारत ब्रिटेन का एक उपनिवेश या परन्तु राष्ट्रीय जागृति एवं स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन के कारण शासन उससे बलपूर्वक सहयोग प्राप्त करने में सक्षम नहीं था।

 इस स्थिति के बावजूद 11 लाख से अधिक व्यक्तियों ने सेना में भर्ती होकर ब्रिटेन की ओर से शत्रु के विरुद्ध उल्लेखनीय एवं ऐतिहासिक युद्ध तथा अपूर्व शौर्य प्रदर्शन किया। इतना ही नहीं, भारतीयों ने युद्ध सहायता कोष में करोड़ों रुपए की धनराशि दी।

 उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा की अपील तथा स्वतंत्रता, समानता, स्वशासन लोकतंत्र और आत्मनिर्णय के सिद्धान्तों के आधार पर युद्ध में सहयोग किया था। उन्हें विश्वास था कि विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन इन सिद्धान्तों के आधार पर उन्हें स्वतंत्र कर स्वशासन प्रदान कर देगा। 

इस प्रकार का यकीन उनमें तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड जार्ज के उस भाषण से उत्पन्न हुआ जिसमें उन्होंने कहा था कि इस विजय में भारतीयों ने जो प्रशंसनीय सहायता की है, उससे उन्हें नया अधिकार मिल गया है कि हम उनकी माँगों पर अधिक ध्यान दें। इस भाषण से भारतीय बहुत आश्वस्त थे किन्तु युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन का रुख एकदम ऊर भी भारतीय स्वशासन प्राप्ति के प्रति आशान्वित थे।

 ब्रिटिश रुख में परिवर्तन से उन्हें बहुत क्षोभ और हो गया। महायुद्ध के बाद यूरोप में आत्मनिर्णय के सिद्धान्त के आधार पर राज्य का पुननिमाण हुआ, उस हुई। उनकी इस मनःस्थिति ने उन्हें ब्रिटिश शासन का विरोधी बना दिया जिसके परिणामस्वरूप वे के असहयोग आन्दोलन में सहयोग के लिए प्रेरित हुए।


2. भारत की दयनीय और शोचनीय आर्थिक स्थिति (Economically Trodden State of India)-


महायुद्ध में ब्रिटेन की तरफ से भाग लेने तथा भारतीय सेना का एक अरब पाण्ड से अधिक का भार वहन करने के कारण भारतीयों की आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय और शोचनीय हो गई थी। युद्ध के कारण उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के कारण वस्तुओं के मूल्य में भारी वृद्धि हुई तथा मुनाफाखोरी को प्रवृत्ति तेज होती गई। इससे बाजार में वस्तुओं की कमी भी उत्पन्न हुई। 

सरकार ने इस स्थिति में जनता की आर्थिक कठिनाइयाँ दूर करने के बजाय उससे लगान और कर के रूप में अधिकाधिक धन की वसूली शुरू कर दी । पूँजीपतियों पर अतिरिक्त लाभ कर लगाया गया जिससे वे क्षुब्ध थे तथा उसका जनता पर भी प्रतिकृत असर पड़ा। उसे भीषण आर्थिक कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करने के लिए बाध्य होना पड़ा। 

सेना में छँटनी तथा अन्य कारणों से फैली बेरोजगारी के कारण भी उसकी आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। की कृषि और औद्योगिक नीतियों के कारण भारत के कुटीर उद्योग-धन्धों पर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, उससे भी भारतीयों की आर्थिक स्थिति दयनीय और शोचनीय हुई। 

भारत का हर वर्ग किसी न किसी रूप में आर्थिक कठिनाइयों से गुजर रहा था। ऐसी स्थिति ने जनता को स्वभावतः शासन का कट्टर विरोधी बना दिया। इतना ही नहीं, इसने उसे गांधीजी तथा उनके सत्याग्रह आन्दोलन की ओर आकर्षित किया और यही मुख्य कारण था कि जब गांधीजी ने सरकार के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात किया तो उन्हें तथा उनके आन्दोलन को जनता का व्यापक समर्थन और सहयोग प्राप्त हुआ।


3. अकाल, सेना में भर्ती, धन की वसूली, भयंकर बीमारियाँ तथा दमनचक्र -


 सरकार के विश्वासघात, उसकी आर्थिक नीतियों तथा अपनी दयनीय एवं शोचनीय आर्थिक स्थिति के कारण जहाँ जनता शासन से अत्यन्त क्षुब्ध और असन्तुष्ट थी, वहीं अकाल, भयंकर बीमारियों, सेना में भर्ती, घन की जबर्दस्ती वसूली तथा सरकारी दमनचक्र के कारण भी वह ब्रिटिश साम्राज्य की कट्टर विरोधी हो गई। जिस समय वह दयनीय एवं शोचनीय आर्थिक स्थिति से गुजर रही थी, उसी समय उसे प्लेग और इंफ्लुएंजा जैसी भयंकर बीमारियों का भी मुकाबला करना पड़ा।


 इसी के साथ 1917 ई. में अपेक्षित वर्षा न होने ते करीब-करीब पूरे देश में अकाल व्याप्त हो गया। विश्वयुद्ध में व्यस्त रहने तथा भारतीयों के प्रति अपने अमानवीय दृष्टिकोण के कारण शासन ने महामारी और अकाल की हालत में भी जनता की पूरी उपेक्षा की तथा उसे राहत पहुँचाने का कोई कार्य नहीं किया। इतना ही नहीं, उसने युद्ध का खर्च वहन करने के लिए अमानवीय ढंग से धन की वसूली भी की। शासन के इस उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण से भी जनता के मन में अत्यन्त क्षोभ एवं असन्तोष की भावना उत्पन्न हुई। 

सरकार को जहाँ भारतीय जनता की कठिनाइयों, विपत्तियों और समस्याओं से कोई सरोकार नहीं था तथा वह उसकी उपेक्षा कर किसी भी प्रकार महायुद्ध में विजयश्री प्राप्त करनी चाहती थी, वहीं वह लोगों क सेना में जबर्दस्ती भर्ती करने की व्यवस्था में भी व्यस्त रही। सरकारी अधिकारी और कर्मचारी गाँव-गाँव जाकर प्रत्येक परिवार से एक या दो व्यक्तियों को युद्ध में भर्ती होने के लिए मजबूर करते थे। 

सैनिक खर्च वहन करन के लिए अनधिकृत, आपत्तिजनक और अत्याचारपूर्ण ढंग से धन की वसूली भी की गई। यह सरकारी अत्याचार और दमन का नग्न रूप था। शासन इतने से ही सन्तुष्ट नहीं था बल्कि वह युद्ध में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के बावजूद उसकी राष्ट्रीय जागृति और उसका राष्ट्रीय आन्दोलन कुचलने के लिए हर प्रकार का दमन चक्र चलता रहा। ‘ग्रेस अधिनियम', राष्ट्रद्रोह अधिनियम तथा बंगाल और पंजाब में व्यापक पैमाने पर किए जान वाले सरकारी अत्याचार इस दमनचक्र के ज्वलन्त उदाहरण थे। 

इससे भी सर्वत्र क्षोभ और असन्तोष का वातावरण उत्पन्न हुआ जिसने आगे चलकर जनता को गांधीजी द्वारा प्रचर्तित असहयोग आन्दोलन में भाग लेने तथा उसके सहयोग करने के लिए उकसाया।


 4. चेम्स-माटेग्यू सुधार योजना से निराशा (Desperation Caused by Chelms-Montague Reform Plan) -


 भारतीयों को प्रथम महायुद्ध में सहयोग करते समय विशेष रूप से उसके नेताओं को इस बात का विश्वास था कि युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेज भारत को स्वतंत्र कर उसे स्वशासन दे देंगे। इस विश्वासघात का पहले-पल आघात उस समय पहुँचा जब चेम्सफोर्ड-मांटेग्यू सुधार योजना (अगस्त, 1917 ई.) में सामने आयी। इससे भारतीयों के मन में निराशा, क्षोभ और असन्तोष की भावना उत्पन्न हुई। यों तो इसमें भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना की एक रूपरेखा प्रस्तुत की गई थी तथा कांग्रेस के उदारवादी इसके प्रशंसक और समर्थक थे किन्तु बड़े पैमाने पर इसके प्रति निराशा और क्षोभ की ही भावना थी। 

इसमें द्वैध शासन प्रणाली, लेजिस्लेटिव कौंसिलों में सदस्यों के मनोनय, विशेषाधिकार और अध्यादेश जारी करने के अधिकार की जो व्यवस्था की गई थी, उससे उदारवादियों के अलावा कोई भी सन्तुष्ट नहीं था। इस योजना से भारतीयों के यकीन को जो आघात पहुँचा, उससे घोर निराशा और क्षोभ का वातावरण उत्पन्न हुआ जिसने लोगों को असहयोगी बनने के लिए प्रेरित किया। 


5. जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड -


 रोलट एक्ट, पंजाब में दमनकार्य, हण्टर कमेटी की रिपोर्ट तथा खिलाफत के प्रश्न ने गांधीजी को ही नहीं वरन् भारतीय जनता को भी ब्रिटिश शासन का कट्टर विरोधी बना दिया। वह शासन के विश्वासघात, दयनीय एवं शोचनीय आर्थिक स्थिति तथा सरकार की उपेक्षा एवं दमन की नीतियों से पहले से ही निराश, क्षुब्ध और असन्तुष्ट थी। 

रौलट एक्ट से लेकर खिलाफत तक के प्रश्न ने उसकी मनःस्थिति को और अधिक प्रज्वलित किया। 'भारत रक्षा अधिनियम' के जरिए समाचारपत्रों तथा राजनीतिक गतिविधियों को नियंत्रित करने में विफल होने पर सरकार ने राष्ट्रीय आन्दोलन एवं राजनीतिक गतिविधियों को कुचलने के लिए मार्च, 1919 में 'रौलट एक्ट' पास किया।

 इसके पास होने के पूर्व ही इसका व्यापक स्तर पर विरोध किया गया। इसके विरोध में देश के सभी प्रमुख नगरों में सभाएँ हुई। कांग्रेस के उदारवादियों ने भी इसका कड़ा विरोध किया क्योंकि वे भी इसे दमनकारी कानून मानते थे। गांधीजी ने तो सत्याग्रह करने की धमकी भी दी, परन्तु सरकार पर किसी भी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। फलस्वरूप गांधीजी तथा अन्य नेताओं सहित भारतीय जनता भी इससे बहुत क्षुब्ध और असन्तुष्ट थी। इस घटना ने जनता को गांधीजी के नेतृत्व और उनके असहयोग आन्दोलन की ओर आकर्षित किया। 

दिल्ली, पंजाब और कलकत्ता आदि नगरों में 'रौलट एक्ट' के विरोध में प्रदर्शन तथा तोड़फोड़ एवं हिंसा की घटनाएँ हुई। सबसे अधिक हिंसात्मक घटनाएँ पंजाब में हुई जिनसे शासन बहुत ही क्रुद्ध था तथा उसके मन में प्रतिरोध की ज्वाला धधक रही थी। 

गांधीजी तथा पंजाब के कांग्रेसी नेता 'डॉ. सत्यपाल और डॉ. शैफुद्दीन किचलू की रिहाई की मांग को लेकर अमृतसर के एक छोटे से पार्क 'जलियाँवाला बाग' में लगभग 20 हजार व्यक्तियों की एक सभा हुई जिसमें जनरल डायर ने बिना किसी चेतावनी के सैनिकों को निर्ममतापूर्वक गोली चलाने करने हुक्म दिया। उस समय पंजाब में 'जनरल डायर' के नेतृत्व में शासन था।

 पंजाब की कतिपय हिंसात्मक घटनाओं से क्रुद्ध होकर वह जनता को सबक सिखाने के लिए बेचैन था। 13 अप्रैल, 1919 ई. को पंजाब के प्रमुख पर्व 'वैशाखी' के दिन उसे अपनी यह बुरी मंशा पूरी करने का मौका मिल गया। उसने आदेश देकर सैनिकों से निहत्थी जनता पर गोली वर्षा करायी जिसमें भारी संख्या में लोग मारे गए। जनरल डायर अपने इस कुकर्म से यह बहुत ही सन्तुष्ट था तथा उसके मन में ग्लानि की कोई भावना नहीं थी। 

स्वदेश वापस जाने पर ब्रिटिश समाज में उसकी व्यापक बड़ाई तथा उसका स्वागत हुआ। भारत मन्त्री माटेग्यू ने कहा कि जनरल डायर ने जो कुछ भी किया, वह नेकनीयती के साथ था। उसकी थी कि उसने परिस्थितियों को ठीक से समझा नहीं। 'हाउस ऑफ लाईस' (ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का उच्च सदन) में उसे 'ब्रिटिश साम्राज्य के शेर' तथा ब्रिटिश समाचार पत्रों में उसे 'ब्रिटिश राज्य के रक्षक' की संज्ञा दी गयी। 

ब्रिटेन में उसके स्वागत में उसे एक तलवार तथा 20 हजार पौण्ड की एक थैली उपहार में दी गयी। एक भारतीय युवक 'उधम सिंह' ने कई वर्षों बाद ब्रिटेन में एक समारोह में उसकी गोली मारकर हत्या कर दी। हण्टर कमेटी की जाँच रिपोर्ट आने के पूर्व ही उसके तथा उसी की तरह के अन्य तैनिक एवं असैनिक अधिकारियों के बचाव के लिए 'इण्डेम्निटी बिल' (Indemnity Bill) पास कर उसे कानून का रूप दे दिया गया।

 इस हृदय विदारक घटना ने गांधीजी सहित अन्य लोगों को भी शासन का कटूटर विरोधी बना दिया। परिणामस्वरूप गांधीजी के असहयोग आन्दोलन की ओर भारी संख्या में लोग आकषित हुए। सन्तुष्ट ब्रिटिश सरकार ने पंजाब में जिस सैनिक शासन की स्थापना की थी, वह केवल 'जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड' से ही नहीं हुआ। उसके चारों और दमनचक्र चला दिया। 298 व्यक्तियों पर संगीन जुर्म के मुकदमे चलाकर उनमें 51 को फाँसी 46 को आजीवन कारावास तथा शेष को कारावास की सजा दी गई। 

जिस गली में अंग्रेज अधिकारी शेरहुड पर हमला हुआ था, उसमें लोगों को पेट के बल चलना पड़ा था। लोगों के घरों से पानी-बिजली काट दी गई और उन्हें सरेआम बेंत और कोड़े लगाए जाते थे। छात्रों को सैनिक अधिकारियों के समक्ष दिन में चार बार हाजिरी देनी पड़ती थी। अंग्रेज अधिकारियों को सलाम न करने अथवा उनके सामने सिर न झुकाने पर लोगों को दण्ड दिया जाता था। इस तरह के अत्याचार और दमनचक्र से भी लोगों के मन में बहुत क्षोभ एवं असन्तोष व्याप्त था। 

परिणामस्वरूप गांधीजी के असहयोग आन्दोलन की तरफ लोग आकर्षित हुए। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की जाँच के लिए नियुक्त हण्टर कमेटी की रिपोर्ट से भी भारतीयों को बहुत निराशा और क्षोभ हुआ। लोगों को यकीन हो गया कि अंग्रेजों से किसी भी तरह का न्याय नहीं प्राप्त हो सकता। लार्ड हण्टर की अध्यक्षता में नियुक्त इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में जनरल डायर को दोषमुक्त करते हु हुए लिखा कि उसने कर्तव्यनिष्ठ होकर किन्तु गलत धारणा के आधार पर इस प्रकार कार्य किया। भारतीयों को इससे बहुत आघात पहुँचा तथा ये गांधीजी से प्रभावित हो उनके असहयोग आन्दोलन में सहयोग के लिए आकर्षित हुए। 

असहयोग आन्दोलन के प्रति हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमान भी व्यापक पैमाने पर आकर्षित हुए। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान तुर्की के बारे में ब्रिटेन द्वारा दिए गए आश्वासन की पूर्ति न होने से भारतीय मुसलमान बहुत ही क्षुब्ध और असन्तुष्ट थे तथा उन्होंने शासन के विरुद्ध खिलाफत आन्दोलन छेड़ दिया। गांधीजी के इसमें पूरी तरह सहयोग तथा इसमें भाग लेने की हिन्दुओं में अपील करने के कारण मुसलमान भी व्यापक पैमाने पर असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित हुए। इससे हिन्दू-मुस्लिम एकता की अभूतपूर्व स्थिति उत्पन्न हुई।


 6. गांधीजी के सत्याग्रह तथा उनके व्यक्तित्व का प्रभाव (Influence of Satyagrah and the Personality of Gandhiji)- 


ब्रिटिश शासन के दमन, अत्याचार, शोषण, विश्वासघात और उसकी उपेक्षा से क्षुब्ध होकर जहाँ लोग असहयोग आन्दोलन के प्रति आकर्षित, और उसके लिए प्रेरित हुए, वहीं गांधीजी के सत्याग्रह एवं उनके सत्याग्रही व्यक्तित्व ने भी उन्हें बहुत प्रभावित किया। दक्षिण अफ्रीका से सफल सत्याग्रही के रूप में स्वदेश आने पर गांधीजी ने यहां भी सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया जिसकी वजह उनके नेतृत्व और व्यक्तित्व के प्रति लोगों के मन में आकर्षण पैदा हुआ तथा वे असहयोग आन्दोलन के प्रति आकर्षित हुए।


आंदोलन को स्थगित करने के गंभीर परिणाम Ahsahyog Aandolan Ke Prinam


गांधीजी द्वारा आंदोलन को स्थगित करने की घोषणा के परिणाम सामने आए


(ए) मुसलमानों के बीच विश्वास का नुकसान- 


हिंदू-मुस्लिम एकता के उदात्त आदर्श की पूर्ति के लिए, गांधीजी ने जोरदार सहयोग की अपील की। खिलाफत आंदोलन। इसका अच्छा प्रभाव पड़ा। हिंदुओं ने खिलाफत में और मुसलमानों ने असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। परिणामस्वरूप, दोनों के बीच ऐतिहासिक एकता स्थापित हुई, लेकिन आंदोलन के निलंबन के साथ, अधिकांश मुसलमानों का गांधीजी पर से विश्वास उठ गया। दोनों देशों के बीच मजबूत एकता टूट गई। 


(बी) मनोवैज्ञानिक प्रभाव - 

उच्च आकांक्षाओं और आशाओं वाले भारतीयों ने इसके नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू किया। जिस तीव्र गति से वे आगे बढ़ रहे थे, उसने उनके हृदय में स्वराज प्राप्ति के लिए दृढ़ विश्वास की भावना भर दी थी। आंदोलन के अचानक निलंबन ने उनके मनोबल को गिरा दिया और उनके विश्वास को एक बड़ा झटका दिया। 


(सी) कांग्रेस में विभाजन -


 असहयोग आंदोलन को निलंबित करने के निर्णय और उसी की घोषणा के कारण कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो गई। इसका एक धड़ा परिषद में प्रवेश के पक्ष में है। सविनय अवज्ञा आंदोलन पर चर्चा करने के लिए एक कांग्रेस जांच समिति का गठन किया गया, जिसने अगस्त 1922 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। कहा गया कि देश इस आंदोलन के लिए तैयार नहीं है, इसलिए कांग्रेस को परिषद में प्रवेश करना चाहिए। 

नवंबर 1922 ई. में कांग्रेस के गया अधिवेशन में इस प्रस्ताव पर बहस हुई, लेकिन कांग्रेस में 'असहयोग आंदोलन' का समर्थन करने वाले बहुमत के कारण इसे स्वीकार नहीं किया जा सका। देशबंधु चित्तरंजन दास ने उस सत्र की अध्यक्षता की और परिषद में प्रवेश के प्रबल समर्थक थे।

 उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया और पंडित मोतीलाल नेहरू के समर्थन से जनवरी 1922 में स्वराज्य पार्टी की स्थापना की। सितंबर 1923 में कांग्रेस ने दिल्ली में एक विशेष सत्र आयोजित किया, जहां स्वराजवादियों को परिषद में शामिल होने की अनुमति दी गई। दिसम्बर 1923 में काकीनाडा में मुहम्मद अली की अध्यक्षता में हुई एक बैठक में कांग्रेस ने भी इसकी पुष्टि की। इस प्रकार स्वराजवादी मूल कांग्रेस से जुड़े थे लेकिन असहयोगवादियों से अलग हो गए थे। गांधीजी के नेतृत्व में रचनात्मक कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में असहयोगी शामिल थे और स्वराजवादियों ने चुनाव लड़ा और परिषदों में सराहनीय सफलता हासिल करने लगे।


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असहयोग आंदोलन का महत्व Asahyog Aandolan ka mahtav


असहयोग आंदोलन स्वशासन प्राप्त करने के अपने उच्च लक्ष्य को पूरा करने में विफल रहा क्योंकि यह बीच में ही रुक गया था, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में इसका महत्वपूर्ण और महत्वपूर्ण योगदान था। 


1. उपलब्धियां - 


अपनी उपलब्धियों के बारे में कुपलैंड ने लिखा है कि गांधीजी ने राष्ट्रीय आंदोलन में क्रांति ला दी थी जो तिलक भी नहीं कर सके, उन्होंने किया। अहिंसा की शक्ति से उन्होंने इसे स्वतंत्रता के लक्ष्य तक पहुँचाया। उन्होंने इसे न केवल क्रांतिकारी बनाया बल्कि इसे लोकप्रिय भी बनाया। यह केवल बुद्धिजीवियों तक ही सीमित नहीं था, बल्कि गाँव के लोगों तक पहुँचता था। 

एस आर. देसाई ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय आंदोलन जो केवल उच्च और मध्यम वर्ग तक ही सीमित था, एक जन आंदोलन में बदल गया क्योंकि इसमें श्रमिकों और किसानों ने भाग लिया। तत्कालीन गवर्नर विलिंगडन ने भी मद्रास की जनता के बीच राजनीतिक चेतना पैदा करने में इसके योगदान पर जोर दिया। इस कथन की सच्चाई इस तथ्य के कारण है कि इस आंदोलन के माध्यम से भारतीयों के मन में उनके राजनीतिक अधिकारों और स्वशासन के बारे में एक गहरी जागृति थी, और उच्च और मध्यम वर्गों से अलग आम लोगों ने इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। 


 इसने बड़ी संख्या में श्रमिकों और किसानों को आकर्षित किया। इसने जनता के बीच त्याग, देशभक्ति और राष्ट्रवाद की एक अद्वितीय भावना पैदा की। 


2. साहस का प्रसार - 


असहयोग आंदोलन ने न केवल बलिदान, देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावना पैदा की, इसने भारतीयों के मन में साहस का संचार किया। पहले लोग सरकार से डरते थे, विरोध करने की हिम्मत नहीं रखते थे। लेकिन इस आंदोलन ने उन्हें निडर बना दिया। लोग सभाओं में उनकी खुलकर आलोचना करते रहे और स्वराज प्राप्त करने पर जोर देते रहे। गांधी ने अहिंसक तरीके से संघर्ष का रास्ता दिखाकर लोगों को बहादुर बनना सिखाया। लोग जेल जाने पर गर्व महसूस कर रहे थे। उनके बढ़ते जोश और साहस ने सरकार को भी डराना शुरू कर दिया।


 3. आत्मनिर्भरता और स्वदेशी की भावना- 


विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी प्रचार और राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों की स्थापना जैसे रचनात्मक कार्यक्रम लोगों के मन में देशभक्ति और आत्मनिर्भरता की भावना पैदा करते हैं। देशी कपड़ों में दिलचस्पी बढ़ने के कारण कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा के विस्तार के फलस्वरूप लोगों में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी के प्रति रुचि बढ़ी। 


4. कांग्रेस में विश्वास - 


इस आंदोलन ने लोगों में विश्वास जगाया, जिससे उनमें यह विश्वास पैदा हुआ कि स्वतंत्रता केवल अपने प्रयासों से ही प्राप्त की जा सकती है। ब्रिटिश सरकार आवेदन और ज्ञापन के साथ कोई न्याय नहीं करने जा रही है। यह भावना सरकार के प्रति अविश्वास की भावना पैदा करती है। इससे यह विश्वास आता है कि केवल कांग्रेस ही स्वतंत्रता प्राप्त करने में सक्षम है। 


5. जनशक्ति प्रमुख जनता की शक्ति का महत्व बढ़ा - 


असहयोग आंदोलन ने जन जागरूकता पैदा की, जिससे सरकार की नजर में सत्ता का महत्व बढ़ गया। पहले उन्हें इसकी चिंता नहीं थी क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन केवल उच्च और मध्यम वर्ग तक ही सीमित था। असहयोग आंदोलन ने शुरू में बड़े पैमाने पर आम लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन की ओर आकर्षित किया। इससे चिंतित सरकार ने जनता का समर्थन हासिल करने की कोशिश शुरू कर दी। उन्होंने महसूस किया कि भारतीयों को लंबे समय तक अंधेरे में नहीं रखा जा सकता है।


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 6. सुसंगठित पार्टी का गठन - 


इस आंदोलन के पहले उच्च और मध्यम वर्ग तक सीमित रहने के कारण कांग्रेस पार्टी एक सुव्यवस्थित पार्टी संगठन का रूप नहीं ले सकी। असहयोग आंदोलन ने इसे आम लोगों से जोड़ा और एक सुव्यवस्थित पार्टी संगठन का निर्माण किया। सुभाष चंद्र बोस ने इसकी सफलता का विश्लेषण करते हुए कहा कि 1921 ई. कांग्रेस से पहले एक संवैधानिक और विचार-विमर्श करने वाली संस्था थी। इस वर्ष ने निस्संदेह उन्हें एक सुव्यवस्थित पार्टी संगठन का रूप दिया।

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